मुझे खुद से
वाक़िफ़ कराने वालों,
ज़रा ठहरो कि
नमक कुछ कम है।
मुझे खुद मे
ही रहने का हुनर फ़िर से न दो,
बड़ी मुश्किल
से मैंने ज़रा मुस्कुराना सीखा है॥
नफ़रत है मुझे
अपने उस पहलु से,
जो दिल भी
लगाता था,कह भी न पाता था।
कह लेने दो
मुझको आज, जो कुछ भी है,
बड़े दर्द में
मैंने यूँ दिल लगाना सीखा है॥
जख़्मों को हवा
देकर उजागर जो किया है,
मयस्सर करायी
मुझको मेरी सच्चाई।
बस करो अब, कि
हर कोई जान लेगा,
कैसे किश्तों
में मैने जो ग़म छुपाना सीखा है॥
आज मेरे
आँसुओं की वज़ह मत पूछना,
ये भारी हैं,
बस यूँ ही निकल पड़ते हैं।
भीतर से जानने
की कोशिश न करना,
हाँ, आँसुओं
को बूँद पानी की बताना सीखा है॥
रुक जाऊँ कहीं
पर, तो न समझना थक चुका,
साँस लूँ मै
दो घड़ी, तो न समझना निर्बल हूँ।
साथ-साथ चलने
को भी मत कहा करो कभी,
हाँ, ख़ुद से
ही राहों पर लड़खड़ाना सीखा है॥
‘भोर’ की आशा
दिखाकर, झूठ को सच मत कहो,
मत कहो कि बोल
दो, या मत कहो खुद में रहो।
आसमाँ में रात
मैंने अन्धेरा ही देखा है,
अपने ग़म
गुपचुप स्वयं से बड़बड़ाना सीखा है॥
हाँ, ढेर
मुश्किल से ज़रा-सा मुस्कुराना सीखा है॥
©प्रभात सिंह
राणा ‘भोर’
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