Sunday, 14 February 2016

शायद…

शायद तुझसे मिल जाउँगा,
भूले-बिसरे गीतों-सा।
मिलकर तुझसे खूब लड़ूँगा,
रुठे-बिछड़े मीतों-सा॥               

पुनः मिलन की चाह तो है,
उम्मीद न है इन आँखों में।
पर चाहूँगा तेरे मन में,
बसा रहूँ संगीतों-सा॥





बार-बार तुझसे लड़ना हो,
जीत कभी न मेरी हो।
प्रेम-युक्त हर हार में पर,
उद्घोष सदा हो जीतों-सा॥

जीवन में तम घोर कभी हो,
हर कोई इक दीपक चाहे।
दुआ यही तेरे जीवन में,
बचा रहूँ उन दीपों-सा॥





कोशिश करके तोड़ दे रस्में,
कदम ज़रा इस ओर बढ़ा।
वादा है, मैं यहीं रहूँगा,
नव-निर्मित कुछ रीतों-सा॥

आज ‘भोर’ है तेरे सम्मुख़,
कल क्या होना किसे पता।
शायद धुँधला पड़ जाऊँगा,
भूले-बिसरे गीतों-सा॥





शायद पन्नों में रह जाउँ,
मैं बिगड़े संगीतों-सा…।




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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