Wednesday, 6 April 2016

चक्र

नयन झरोख़े सम्मुख दृढ़ हैं,
बाट टोहते जीवन की।
वह जीवन जो आ समीप कर,
चुरा नज़र मुड़ जाएगा॥

चारदीवारी तक सीमित जो,
बिखरा-सा संसार पड़ा है।
समय-चक्र पर नज़र टिकाए,
वह तम से जुड़ जाएगा॥




कुछ बातें उसकी मधु-भीनी,
कुछ नीरव अनुभव उसके।
कुछ तिक्त-कटु बातें कह कर,
वसुधा में लीन हो जाएगा॥

बन्द किवाड़ों के इस ओर,
दशा जीर्ण-शीर्ण दयनीय।
नज़र पड़ेगी जब तक उस पर,
मलिन-हीन हो जाएगा।।




न चैन, ठहर कर सोच सके,
न जगह, गति का साथ करे।
कुछ लम्हों में ही छोड़ तनाव,
वह काफ़िर हो जाएगा॥

न हाथ बढ़ा, न साथ मिला,
संकीर्ण क्षेत्र, सीमित सुविधा।
मंद-मंद अग्रिम होता वह,
खुद माहिर हो जाएगा॥




दिशा भटकता देख-जान कर,
माया में खो जाएगा।
सफ़र छोड़ कर मध्य में ही वह,
‘भोर’ रहते सो जाएगा॥





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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