मैंने भी गुल्लक भर-भर के,
ख़्वाब कई देखे थे।
कई दफ़ा फिर झाँक-झाँक कर,
सिक्के ख़ूब गिने थे॥
वही बेचारी गुल्लक मेरी,
याद मुझे करती है।
बचपन के सिक्के मेरे,
महफूज़ अभी रखती है॥
जोड़-जोड़ कर सिक्के मैं भी,
जूते लूँगा मर्ज़ी से।
नई-नई पोशाकें मैं फिर,
सिलवाऊँगा दर्जी से॥
सोचा मैंने ये भी था,
कि जब गुल्लक भर लूँगा।
तोड़ के गुल्लक; पूरे अपने
शौक सभी कर लूँगा॥
छोटी-सी वो गुल्लक मेरी,
कभी न मैं भर पाया।
धीरे-धीरे उम्र हुई,
बचपन ने छोड़ा साया॥
आज भी मेरी छोटी गुल्लक,
अलमारी में रहती है।
अपना बचपन मुझको दे दो,
इतना मुझसे कहती है॥
‘भोर’ यही रीति है जग में,
बचपन ढल ही जाना है।
तब गुल्लक भर ही काफ़ी था,
अब क़िस्सा यही पुराना है॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
Heart touching
ReplyDeleteThanks a lot. The response means a lot to me. Share the poem with others and keep loving..!
DeleteBahut hi achi likhi hai bhai. Tumhara kaam alag aur bohut hi apne se jod sake aisa hota hai... Aise hi likjte raho mere mitra din dur nahi jab tu apna phla autograph de rha hoga mujhe..
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद!! इसी प्रेम का आभारी हूँ, सदा रहूँगा। यूँ ही प्रेम बनाये रखिए और मेरी कविताएँ सबको सुनाते रहिए। 😊
Delete������ nice
ReplyDeleteप्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद..! यूँ ही प्रेम बनाए रखिए और मेरी कविताएँ सभी से साझा कीजिए..
Deleteआभार..!!
It directly connects to hear.....U described childhood in amazing way
ReplyDeleteI'm glad that you could connect through my poem. Keep reading, re-reading and keep loving, keep sharing. 😊
DeleteBhoot sundar dude❤️❤️
ReplyDelete♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️♥️
ReplyDelete