Sunday, 22 November 2015

सफ़र…

अन्तहीन-सी राहों में,
चलता रहे कुछ यूँ सफ़र।
न किसी की फ़िक्र मन में,
न किसी की हो ख़बर॥

न रुके, चलता रहे,
न कभी मन्जिल मिले।
दर्मियाँ बस बातें हों,
मन चले हो बेसबर॥





कभी सरपट, कभी धीमे,
कभी गोल-सा चक्कर लगा के।
सफ़र जीवन को दर्शाये,
मस्ती हो कुछ इस कदर॥




कुछ गीत हों, संगीत हों,
कुछ कहकहे नये पुराने।
कुछ अनकही ख़ामोशियाँ,
जो छोड़ दें दिल पे असर॥

कुछ ‘भोर’ की बातें हों तुमसे,
कुछ तुम्हारी भी सही।
कुछ दुनियाभर का पागलपन,
मिले न जो दर-बदर॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Wednesday, 7 October 2015

वर्णन…

रिमझिम होती बारिश अब तो,
भेद दिलों के खोलेगी।
देखना तुझसे मिलकर तुझको,
हाल हमारा बोलेगी॥                 

इक बार ज़रा वर्षा-मोती में,
सराबोर कर दे खुद को।
अरे!, सच कहता हूँ ना चाहेगी,
तब भी मेरी हो लेगी॥



पर ध्यान भी रखना इसका कि,
कोई देख़ ना ले तुझको भीगा।
मानुष क्या है देवों की भी,
नीयत तुझ पर डोलेगी॥

हर बूँद तेरे चेहरे से गिर कर,
ख़ुद सुन्दर हो जाती है।
तुझे देख़ कर परियों की,
रानी भी रूप टटोलेगी॥



सुन ‘भोर’ कहे क्या, सुन्दरता;
तुझ-सी दुनिया में नहीं कहीं।
रूप की रानी तुझे देख़ कर,
मुँह टेढ़ा कर रो लेगी॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Saturday, 15 August 2015

कर्तव्य…

 वह तो वापस जा रहा है,
घर नगर को छोड़ कर।
हर सगे, हर मित्रगण औ,
हर खबर को छोड़ कर॥




माँ से तो वह कह चुका है,
‘‘लौट कर फ़िर आऊँगा।
तिरंगा बचाऊँगा या,
तिरंगा हो जाऊँगा॥

पर तू ना कर फ़िक्र मेरी,
हँसते-हँसते कर विदा।
अच्छा तो अब चल पड़ू,
ऐ माँ मेरी बस अलविदा॥’’

पिताजी से कह रहा कि,
‘‘पापा जी अब चलता हूँ।
अगली बार अवकाश में,
पुनः फ़िर से मिलता हूँ॥

आप ने जो दी थीं,
सभी सीख मुझे याद हैं।
यह भी मुझे ज्ञात है कि,
आप सदा साथ हैं॥’’




भाई को भी है बताता,
मन लगाकर के पढ़ो।
न कभी डरना अनुज,
आगे, बस आगे बढ़ो॥

बीवी से भी कह रहा है,
जब मैं वापस आऊँगा।
बच्चों सहित तुमको यकीनन,
सैर पर ले जाऊँगा॥

ह्रदयांश से कह रहा,
तू शेर का बच्चा है न?
क्यों रुलाता है मुझे,
तू मुझसे तो अच्छा है न?




दृढ़-विश्वासी चेहरा उसका,
धुँधला-सा पड़ जाता है।
कुछ विचार करके पुनः वह,
उठ खड़ा हो जाता है॥

मानो जैसे कह रहा हो,
ये तो बस दो-चार हैं।
रक्षा सबकी करनी है,
जो कई हज़ार हैं॥

सोचता हूँ मैं कि,
सभी सैनिक बड़े धन्य हैं।
हम में से ही हैं वो कुछ,
न कि कोई अन्य हैं॥




कई-कई गज़ हिम-तूफ़ानों,
में भी पहरा देते हैं।
अपना जीवन देकर हमको,
देश सुनहरा देते हैं॥

रात-रात भर जाग-जाग कर,
देश की रक्षा करते हैं।
सीमा पर हर साल ना जाने,
कितने सैनिक मरते हैं॥






हर निशा, हरभोरजिनकी,
देश पर कुर्बान है।
ऐसे हर इक वीर को,
ह्रदय से सलाम है॥

ऐसे हर इक वीर को,
ह्रदय से सलाम है॥






©प्रभात सिंह राणाभोर


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Thursday, 13 August 2015

गज़ल हो तुम…

मेरा आज हो तुम, मेरा कल हो तुम,
मेरा हर इक पल हो तुम।
मेरे जज़्बातों के मेल से,
बनी कोई गज़ल हो तुम॥   

जग ने मुँह फ़ेरा, तुम तब भी साथ थी,
जब कभी तुम ना थी, तब तुम्हारी याद थी।
मेरे साथ हर वक़्त, हर पल हो तुम,
गज़ल हो तुम॥



 महक जो मुझमें है, ख़ुशबु तुम्हारी है,
जो कुछ भी साथ है, यादें तुम्हारी है।
पंखुड़ी-सी खिलती वो मुस्कान तुम्हारी,
शायद नव-निर्मित कमल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥

तुम जो साथ होती हो, दुनिया भूल जाता हूँ,
खुद को तुम्हारा, बस तुम्हारा ही पाता हूँ।
तुम्हारी करीबी से मन प्रफ़ुल्लित होता है,
मन में उठती हलचल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥



तुम्हारी वो ख्वाहिशें, याद मुझे अब भी हैं,
तुम्हारी फ़रमाइशें, याद मुझे अब भी हैं।
याद है मुझको, किस-कदर मुझे जलाती थीं,
दूसरों की बातें तुम बीच में ले आती थी,
प्यारी-सी कुछ-कुछ चंचल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥

नदियों-सी शीतल मुस्कान तुम्हारी,
चाँद-सा चेहरा और बातें तुम्हारी।
यादों में साथ मेरे पल-पल हो तुम,
पावन औ स्वच्छ निर्मल हो तुम॥

सच कहता हूँ-“गज़ल हो तुम।’’
गज़ल हो तुम॥





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Monday, 13 July 2015

मैंने देखा है...!

देखा है, मैंने एक ख़्वाब बुन के देखा है,
एक रोते बच्चे की आह सुनके देखा है।
मन में ही रोते हैं सारे के सारे,
मन में निकलते आँसू को उनके देखा है॥

क्यों हैं रोते सर छुपा के,
क्यों हैं बेबस किस्मत के आगे।
वैसे तो हर रोज़ ढेरों रोते हैं,
हर एक को दिन में बार-बार रोते देखा है॥




न सर पे ममता की छाया,
क्या पता किसने बनाया।
हर सुबह दर-दर भटकता,
रात जगते देखा है॥

हर जगह खोजें ठिकाना,
क्या पता क्या आशियाना।
हर तरह की राह में,
गिरते सँभलते देखा है॥

देखा है सबने राह चलते,
हर समय दिन रात ढलते।
हर ‘भोर’ फ़ुटपाथ पर,
आँखों को मलते देखा है॥




ढेर हैं सबको हँसाते,
सब जानूँ क्या हैं छुपाते।
उन ज़रा-सी आँख में,
आँसू निकलते देखा है॥

टीस उठती है जेहन में,
सुन उन्हें दिन-रात रोते।
हर जगह बस भूख से,
पैरों पे पड़ते देखा है॥

उनके भी अरमाँ हैं ढेरों,
किससे करें पर वो बयाँ।
हर समय बस ख़्वाहिशों से,
रूख़ बदलते देखा है॥




ढेर मुश्किलें हैं जीवन में,
पर लालसा जीने की मन में।
हर घड़ी कठिनाई से,
लड़ते-झगड़ते देखा है॥

देखा है, मैंने कई बार उनको देखा है,
हर बार नयी ‘भोर’ का अरमान खोते देखा है।
करते हैं कुछ लोग उनकी मदद कभी-कभी,
उस मदद की ख़ातिर कुर्बान होते देखा है॥


©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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Saturday, 11 July 2015

मुझे तू याद आती है…

मन को भिगाती ये बरखा बहार,
मौसम बनाती ठण्डी फ़ुहार।
हर बूँद आकर कुछ बात बताती है,
मुझे तू याद आती है॥

बूँदों में तेरा ही अख्श नज़र आता है,
हर बादल तेरे होने का एहसास दिलाता है।
ये बारिश मेरी चाहत को और जगाती है,
मुझे तू याद आती है॥



तेरी हँसी, तेरी बात,
बीते समय मे ले जाती है।
इस मौसम की सुन्दरता में,
मुझे तू याद आती है॥

‘भोर’ की चाहत पर,
यकीन इक बार तो कर।
मुझे पास बुलाने की
कोशिश इक बार तो कर॥


तेरा साथ है बस,
बरखा तो साथ छोड जाती है,
सच! तू बहुत याद आती है॥


©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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Saturday, 30 May 2015

सीखना है…!!!

सीखना है सिर छुपाना, सिर बचाना सीखना है,
आस पास रह के सबके पास आना सीखना है।
बचपने में थी पढ़ी, जो एकजुटता की कहानी,
फ़िर से उसे दुनिया में सबको बताना सीखना है॥


सीखना है कैसे सूरज की तपिश को कम करें,
सीखना है कैसे दारिद्रता ख़त्म करें।
सबको ही मौके दिलाना, सबको एक सा बनाना,
सीखना है कैसे, दुनिया की विषमता सम करें॥


सीखना है ये कि जलन की भावना ना रहे,
सीखना है ये व्यसन की व्यर्थ कामना ना रहे।
ध्यान रखना सीखना है, मान करना सीखना है,
सीखना है जग में स्त्री की उलाहना ना रहे॥


सीखना है ये कि पंछी पर खुले ही हैं भले,
सीखना है ये कि मन में हर घड़ी आशा रहे।
सीखना है ये की स्वयं हम ही अपने साथ हैं,
कर्म सारे हैं सरल बस भरोसे की बात है॥


याद भी रखना है इक दिन ‘भोर’ अपना रूख़ करेगी,
वह घड़ी जब ज़िंदगी भी हँस पड़ेगी सुख कहेगी।
तब ना अँधियारा रहेगा, ना अपूर्ति रह बचेगी,
लेकिन नये ‘भोर’ की उम्मीद तब भी रहेगी…॥






©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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Sunday, 22 March 2015

तुम थी....!

आँखों की राहत तुम थी,
हाँ, मेरी पहली चाहत तुम थी,
तुम थी चेतना में मेरी,
कल्पनाओं की आकृति तुम थी।

तुम अर्थ थी, स्पर्श थी,
तुम वेदना-संवेदना,
तुम भाव थी, अभिव्यक्ति थी,
तुम प्रेम की थी प्रेरणा।











मैं मार्ग था तुम थी दिशा,
मैं मूर्त था, तुम अर्चना,
मैं शब्द था, तुम वाणी थी,
मैं साध्य था तुम साधना।

तुम भाग्य थी, मेरा कर्म भी,
तुम गीत थी संगीत भी,
तुम नेत्र थी, तुम अश्रु भी,
तुम लक्ष्य थी, तुम जीत भी।











जग दूर था, तुम पास थी,
तम घोर था, तुम आस थी,
मैं चित्र था, तुम थी कला,
मैं बिम्ब, तुम आभास थी।

मेरी हार में मेरा बल बनी तुम,
तुम मुस्कान थी, तुम थी खुशी,
हृदय में उतरी आहट तुम थी,
हाँ......, मेरी पहली चाहत तुम थी।


©विवेक ‘उत्कंठ’


यह कविता आपके सम्मुख रखते हुए मुझे बेहद खुशी महसूस हो रही है।
उम्मीद है कि बेहद उम्दा लेखक और व्यक्तित्व द्वारा कृत यह कृति आपको पसन्द आयी होगी।

धन्यवाद...!

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Tuesday, 17 February 2015

तनिक ठहर लो, ज़रा देख़ लो…

क्या दौड़ भाग है लगा रखी?
क्यों इधर-उधर तुम भटक रहे?
क्यों तथाकथित को सुन-सुनकर,
तुम कर्म भूमि में अटक रहे?
ज़रा एक बार ख़ुद को देखो,
कितने अवगुण, कितने गुण हैं।
क्यों दूजों की पोथी पढ-पढ,
मन के मन में खटक रहे?

अरे! तनिक ठहर लो ज़रा देख़ लो…











इतनी ज़ल्दी काहे की है?
धीरे कर पर अच्छा कर।
स्वयं भाग्य को सुघड़ बना कर,
नकल नहीं कुछ सच्चा कर॥
आत्मसमर्पण कर दो ख़ुद को,
एक बार अन्तर मे देख।
भीतर अपने पाओगे तुम,
गुणों सुशोभित स्वर्णिम लेख़॥


ख़ुद को नहीं तो नहीं सही,
बस क्षणिक नेत्र यह धरा देख़ लो॥


तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!
तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Wednesday, 11 February 2015

अवशेष…

ख़ोज में हूँ चल पड़ा,
मैं अपने ही अवशेष की।
न प्रमुख, न अल्पसाँख्यिक,
न किसी विशेष की॥

अपना ही प्रतिबिंब खोजूँ,
जो मैं अब हूँ खो चुका।
छोड़ इसको क्यों न सोचूँ,
होना था जो हो चुका॥


राहें कठिन हैं, या मैं निर्बल,
या सहारा चाहिये।
कालिमा मय है निशा,
कोई सितारा चाहिये॥










कहकहों वाली हँसी,
मुस्कान बन कर रह गयी।
ज़रा चर्चित थी जो वह,
पहचान थक कर ढह गयी॥

अब पुनः वही ‘भोर’ वही
साँझ कहाँ से पाऊँ?
या ऐसा जीवन, जीवन भर
यापित करता जाऊँ??



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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