ख़ोज में हूँ चल पड़ा,
मैं अपने ही अवशेष की।
न प्रमुख, न अल्पसाँख्यिक,
न किसी विशेष की॥
अपना ही प्रतिबिंब खोजूँ,
जो मैं अब हूँ खो चुका।
छोड़ इसको क्यों न सोचूँ,
होना था जो हो चुका॥
राहें कठिन हैं, या मैं निर्बल,
या सहारा चाहिये।
कालिमा मय है निशा,
कोई सितारा चाहिये॥
कहकहों वाली हँसी,
मुस्कान बन कर रह गयी।
ज़रा चर्चित थी जो वह,
पहचान थक कर ढह गयी॥
अब पुनः वही ‘भोर’ वही
साँझ कहाँ से पाऊँ?
या ऐसा जीवन, जीवन भर
यापित करता जाऊँ??
©प्रभात सिंह राणा
‘भोर’
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