साँसें रुक-रुक कर चलती-सी,
खो जाने से डरती हैं।
तेरा इंतज़ार मुश्किल,
जब घड़ियाँ धोखा करती हैं॥
तेरे इंतज़ार में ही,
सारे-सारे दिन ढलते हैं।
तेरे संग जज़्बात रुकें,
तेरे संग लम्हे चलते हैं॥
तू पल भर को सामने आ,
मुझसे, मुझको ले जाती है।
और पल भर में बार-बार,
अगणित सपने दे जाती है॥
सपनों की दुनिया में आँखें,
समय को रोका करती हैं।
जब तू मुझसे मिलती है,
तब घड़ियाँ धोखा करती हैं॥
तुझसे ही हर साँझ बने,
तुझमें ही रात गुजरती हैं।
तुझसे मिलने को मेरी,
हर साँस दुआएँ करती हैं॥
पर जब-जब वो मिलती है,
धड़कन कुछ थम-सी जाती है।
जब नज़र घुमाती जाने को,
तब सब संग में ले जाती है॥
‘भोर’ समय से इंतज़ार में,
आँखें खूब सँवरती हैं।
वो जब मुझसे बात करे,
सब घड़ियाँ धोखा करती हैं॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
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