Sunday 26 August 2018

राखी

आज डाकिया काफ़ी दिन के,
बाद नज़र है आया।
मेरे नाम को लिखा हुआ इक,
साथ लिफ़ाफ़ा लाया॥

देख डाकिया आज से पहले,
खुशी कहाँ पायी थी।
उस एक लिफ़ाफ़े में बहनों की,
राखी जो आयी थी॥


बड़ा सजा के पत्र एक,
भेजा था उसके अंदर।
हृदय खोलकर लुटा दिया था,
ममता भरा समंदर॥

दोनों ने लिखा था उसमें,
बारी-बारी आकर।
एक बात ही लिख रखी थी,
बार-बार दुहरा कर॥

ये कि भाई इस राखी न,
हाथ खाली रह जाए।
तुझे बड़ा पसंद है न,
पर मीठा कौन खिलाए॥

हर साल सताता था कि,
जा नहीं देता कुछ बदले में।
इस बार बिना तेरे, राखी में
मुझको कौन सताए॥

फ़िर छोटी वाली ने भी,
अपने मन की लिख डाली।
इस बार नहीं सजाउँगी मैं,
पूजा वाली थाली॥

तेरे बिना न दीदी मुझको,
बिना बात धमकाए।
न ही मम्मी गुस्सा होकर,
कान खींच समझाए॥

सोचा था तू जाएगा तो,
सारा लाड़ मिलेगा।
पर तेरे बिन दुनिया भर का,
लाड़ मुझे न भाए॥


इतना पढ़ कर आँसू,
मेरी आँखों में आ छलके।
यादों में बह चले थे सारे,
क़िस्से बीते कल के॥

दीदी की चोटी को मैं जो,
खींच के भागा करता।
फ़िर मम्मी की डाँट पड़ेगी,
सोच के थोड़ा डरता॥

छोटी वाली के हाथों से,
टॉफी छीना करता।
फ़िर रोती तो अपने हिस्से की,
उसको दे पड़ता॥

भाई-बहन के इतने क़िस्से,
कैसे तुम्हें बताऊँ।
कैसे अपनी ‘उस’ दुनिया की,
सैर तुम्हें करवाऊँ॥


‘भोर’ की ख़ातिर दोनों अपना,
सब कुछ भूले जाती हैं।
पर रह-रह कर राखी में ये,
आँखें नम हो जाती हैं॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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2 comments:

  1. Replies
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      But still it means a lot, thanks again.
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