Sunday, 28 August 2016

जैसे कवि रचना करता है!

कितनी पास है तू,
पर दूर भी कितनी है,
तारों के बीच में दूरी जितनी है,
एक दिन तो शायद, ये दूरी मिटनी है॥

तेरा अख़्स है मुझमें यों जैसे,
दरिया में चाँद की छाया है,
सावन हँस के लहराया है,
धूप में गहरा साया है॥




तू नज़र चुरा के बैठी जैसे,
सूरज घन में छिप जाता है,
मोती सीप सुहाता है,
हाँ! अपना कुछ नाता है॥

तेरी मुझे ज़रूरत जैसे,
सूखे में पानी का शोर,
कवि को बस कविता हर ओर,
निशा अंत में जैसे भोर॥




मैं तुझसे आकर्षित जैसे,
कीट-पतंगे हों दीपक से,
भँवरे होते मधु के मद से,
कलम कभी जैसे कागद से॥

मुँह को फ़ेरती है जैसे,
रोशनी छिपती घटा में,
रंग छिपता आसमाँ में,
राग छिपता है हवा में॥




‘भोर’ स्वागत यों करे ज्यों,
आगन्तुक का होता है,
भूख में बच्चा रोता है,
अपनी धुन कोई खोता है॥

मैं तेरी याद में रहता जैसे,
शिल्पकार कुछ गढ़ता है,
कोई भटका सागर तरता है,
जैसे कवि रचना करता है॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Monday, 15 August 2016

एक संकल्प

चलो एक संकल्प लें,
भारत को नयी पहचान दें।
हाथ-हाथ सबके साथ,
सबको एक-सा सम्मान दें॥



संकल्प भारत को आगे बढ़ाने का,
साथ ही दुनिया में छा जाने का।
चलो सदा यूँ ही साथ निभायें,
भारत का नया रूप दिखायें॥

भेदभाव सब ख़त्म करें,
दिल में नयी उमंग भरें।
जातिवाद हो जड़ से ख़त्म,
जो भारत को दे नया जन्म॥


नारी को देकर पूरा मान,
ऊँचा करें अपना अभिमान।
करके सबके हित में काम,
चलो बना दें 'मेरा भारत महान'




©शुभांकर ‘शुभ’



Posted by- प्रभात सिंह राणा 'भोर'

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Saturday, 6 August 2016

उत्तराखण्ड आपदा

बिन मौसम ये मानसून क्यों आया ?
जो संग अपने इतनी तबाही है लाया।
इस बार पहाड़ इतना क्यों रोया,
कि उसने सबका सुख-चैन है खोया॥

क्यों नदियों ने इतना उफ़ान लिया ?
कि जो आया सामने उसका विनाश किया।
क्यों नदियों ने निगले गाँव के गाँव,
तो भू-स्खलन ने क्यों तोड़े उत्तराखण्ड के पाँव॥




दैवीय आपदा से खुद देव भी न बच पाए,
केदारनाथ, बद्रीनाथ धाम भी यहाँ पानी में समाए।
शवों की क्यों नहीं हो पायी ठीक-ठीक गिनती,
क्यों प्रशासन नहीं सुन रहा पीड़ितों की विनती॥

सब पीड़ितों की आँख में देखा जा,
सकता है ये खौफ़नाक मंज़र्।
ये आपदा हमने बुलाई, हमने ही घोंपा है
पहाड़ों की पीठ में खंज़र॥




हर तरफ़ मची ये करुण चीख-पुकार,
हवाई दौरा कर क्या मजाक उड़ा रही है सरकार॥

क्यों लग रहे हैं प्रबंधन के गलत अनुमान,
दूर तलक फ़ैले हैं इस तबाही के निशान।
क्या हैं, हमारे पास इन सवालों के जवाब ?
पहाड़ों को बना के भिखारी, प्रबंधन क्यों बना बैठा है नवाब ?



©शुभांकर ‘शुभ’


उपरोक्त कविता मेरे एक अज़ीज़ मित्र के द्वारा लिखी गयी है। आपकी कविता सभी के सम्मुख रखते हुए अत्यंत खुशी महसूस कर रहा हूँ। आपके व्यक्तित्व को मैं ज्यादा नहीं जानता परंतु इतना तो आपकी कविता लेखन से स्पष्ट है कि आप चरित्र के अत्यंत सरल हैं। आप मेरे उन मित्रों की श्रेणी में शामिल हैं जिनसे मैं कभी मिला नहीं परंतु मिलने को आतुर हूँ।
“उपरोक्त कविता में लेखक के स्वयं के विचार हैं।“
धन्यवाद!


-प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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