कितनी पास है तू,
पर दूर भी कितनी है,
तारों के बीच में दूरी जितनी है,
एक दिन तो शायद, ये दूरी मिटनी है॥
तेरा अख़्स है मुझमें यों जैसे,
दरिया में चाँद की छाया है,
सावन हँस के लहराया है,
धूप में गहरा साया है॥
तू नज़र चुरा के बैठी जैसे,
सूरज घन में छिप जाता है,
मोती सीप सुहाता है,
हाँ! अपना कुछ नाता है॥
तेरी मुझे ज़रूरत जैसे,
सूखे में पानी का शोर,
कवि को बस कविता हर ओर,
निशा अंत में जैसे भोर॥
मैं तुझसे आकर्षित जैसे,
कीट-पतंगे हों दीपक से,
भँवरे होते मधु के मद से,
कलम कभी जैसे कागद से॥
मुँह को फ़ेरती है जैसे,
रोशनी छिपती घटा में,
रंग छिपता आसमाँ में,
राग छिपता है हवा में॥
‘भोर’ स्वागत यों करे ज्यों,
आगन्तुक का होता है,
भूख में बच्चा रोता है,
अपनी धुन कोई खोता है॥
मैं तेरी याद में रहता जैसे,
शिल्पकार कुछ गढ़ता है,
कोई भटका सागर तरता है,
जैसे कवि रचना करता है॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’