Saturday, 15 August 2015

कर्तव्य…

 वह तो वापस जा रहा है,
घर नगर को छोड़ कर।
हर सगे, हर मित्रगण औ,
हर खबर को छोड़ कर॥




माँ से तो वह कह चुका है,
‘‘लौट कर फ़िर आऊँगा।
तिरंगा बचाऊँगा या,
तिरंगा हो जाऊँगा॥

पर तू ना कर फ़िक्र मेरी,
हँसते-हँसते कर विदा।
अच्छा तो अब चल पड़ू,
ऐ माँ मेरी बस अलविदा॥’’

पिताजी से कह रहा कि,
‘‘पापा जी अब चलता हूँ।
अगली बार अवकाश में,
पुनः फ़िर से मिलता हूँ॥

आप ने जो दी थीं,
सभी सीख मुझे याद हैं।
यह भी मुझे ज्ञात है कि,
आप सदा साथ हैं॥’’




भाई को भी है बताता,
मन लगाकर के पढ़ो।
न कभी डरना अनुज,
आगे, बस आगे बढ़ो॥

बीवी से भी कह रहा है,
जब मैं वापस आऊँगा।
बच्चों सहित तुमको यकीनन,
सैर पर ले जाऊँगा॥

ह्रदयांश से कह रहा,
तू शेर का बच्चा है न?
क्यों रुलाता है मुझे,
तू मुझसे तो अच्छा है न?




दृढ़-विश्वासी चेहरा उसका,
धुँधला-सा पड़ जाता है।
कुछ विचार करके पुनः वह,
उठ खड़ा हो जाता है॥

मानो जैसे कह रहा हो,
ये तो बस दो-चार हैं।
रक्षा सबकी करनी है,
जो कई हज़ार हैं॥

सोचता हूँ मैं कि,
सभी सैनिक बड़े धन्य हैं।
हम में से ही हैं वो कुछ,
न कि कोई अन्य हैं॥




कई-कई गज़ हिम-तूफ़ानों,
में भी पहरा देते हैं।
अपना जीवन देकर हमको,
देश सुनहरा देते हैं॥

रात-रात भर जाग-जाग कर,
देश की रक्षा करते हैं।
सीमा पर हर साल ना जाने,
कितने सैनिक मरते हैं॥






हर निशा, हरभोरजिनकी,
देश पर कुर्बान है।
ऐसे हर इक वीर को,
ह्रदय से सलाम है॥

ऐसे हर इक वीर को,
ह्रदय से सलाम है॥






©प्रभात सिंह राणाभोर


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Thursday, 13 August 2015

गज़ल हो तुम…

मेरा आज हो तुम, मेरा कल हो तुम,
मेरा हर इक पल हो तुम।
मेरे जज़्बातों के मेल से,
बनी कोई गज़ल हो तुम॥   

जग ने मुँह फ़ेरा, तुम तब भी साथ थी,
जब कभी तुम ना थी, तब तुम्हारी याद थी।
मेरे साथ हर वक़्त, हर पल हो तुम,
गज़ल हो तुम॥



 महक जो मुझमें है, ख़ुशबु तुम्हारी है,
जो कुछ भी साथ है, यादें तुम्हारी है।
पंखुड़ी-सी खिलती वो मुस्कान तुम्हारी,
शायद नव-निर्मित कमल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥

तुम जो साथ होती हो, दुनिया भूल जाता हूँ,
खुद को तुम्हारा, बस तुम्हारा ही पाता हूँ।
तुम्हारी करीबी से मन प्रफ़ुल्लित होता है,
मन में उठती हलचल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥



तुम्हारी वो ख्वाहिशें, याद मुझे अब भी हैं,
तुम्हारी फ़रमाइशें, याद मुझे अब भी हैं।
याद है मुझको, किस-कदर मुझे जलाती थीं,
दूसरों की बातें तुम बीच में ले आती थी,
प्यारी-सी कुछ-कुछ चंचल हो तुम॥
गज़ल हो तुम॥

नदियों-सी शीतल मुस्कान तुम्हारी,
चाँद-सा चेहरा और बातें तुम्हारी।
यादों में साथ मेरे पल-पल हो तुम,
पावन औ स्वच्छ निर्मल हो तुम॥

सच कहता हूँ-“गज़ल हो तुम।’’
गज़ल हो तुम॥





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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