जब चल-चल तुम थक जाओ,
तब पास मेरे तुम आ जाना।
सब जग से ठोकर पाओ,
तब पास मेरे तुम आ जाना॥
नहीं कहूँगा तुमसे कि,
जब चले गए थे आए क्यों।
सोच-सोच के इधर-उधर की,
सीधी-सीधी बात कहूँगा,
तुमसे भी जब फ़िर आओगे।
बिना बात ना बात बनाना,
मत समझाना, आ जाना॥
जब जाते हो तो मन है तुम्हारा,
आओगे अपने मन से।
तब राह में यूँ ही छोड़ गए,
अब मत शरमाना, आ जाना॥
थोड़ा तो मन बिगड़ा है,
थोड़ा-सा नाराज़ भी हूँ।
थोड़ा जो नज़रें फेरूँ,
तो मत क़तराना, आ जाना॥
बात-बात में बात तुम्हारी।
अक़्सर ही कर लेता हूँ।
गर मन में कुछ बात रही हो,
बात बताना, आ जाना॥
गर तुम ने सोचा है ये,
कि तुम्हें मनाने आऊँगा।
इंतज़ार में नज़रें अपनी,
नहीं बिछाना, आ जाना॥
रोज़-रोज़ तो ऐसा कुछ,
न हो पाएगा मुझसे भी।
आते हो तो आ जाओ,
अब फ़िर से मुड़ कर ना जाना॥
‘भोर’ आशा टूटती है,
क्यों भला तुम आओगे।
मेरी आशाओं को अब,
न आज़माना, आ जाना॥
जब चल-चल तुम थक जाओ,
तब पास मेरे तुम आ जाना।
सब से जो ठोकर पाओ,
हो बुरा ज़माना, आ जाना॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
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