देखा है, मैंने एक ख़्वाब बुन के देखा है,
एक रोते बच्चे की आह सुनके देखा है।
मन में ही रोते हैं सारे के सारे,
मन में निकलते आँसू को उनके देखा है॥
क्यों हैं रोते सर छुपा के,
क्यों हैं बेबस किस्मत के आगे।
वैसे तो हर रोज़ ढेरों रोते हैं,
न सर पे ममता की छाया,
क्या पता किसने बनाया।
हर सुबह दर-दर भटकता,
रात जगते देखा है॥
हर जगह खोजें ठिकाना,
क्या पता क्या आशियाना।
हर तरह की राह में,
गिरते सँभलते देखा है॥
देखा है सबने राह चलते,
हर समय दिन रात ढलते।
हर ‘भोर’ फ़ुटपाथ पर,
ढेर हैं सबको हँसाते,
सब जानूँ क्या हैं छुपाते।
उन ज़रा-सी आँख में,
आँसू निकलते देखा है॥
टीस उठती है जेहन में,
सुन उन्हें दिन-रात रोते।
हर जगह बस भूख से,
पैरों पे पड़ते देखा है॥
उनके भी अरमाँ हैं ढेरों,
किससे करें पर वो बयाँ।
हर समय बस ख़्वाहिशों से,
ढेर मुश्किलें हैं जीवन में,
पर लालसा जीने की मन में।
हर घड़ी कठिनाई से,
लड़ते-झगड़ते देखा है॥
देखा है, मैंने कई बार उनको देखा है,
हर बार नयी ‘भोर’ का अरमान खोते देखा है।
करते हैं कुछ लोग उनकी मदद कभी-कभी,
उस मदद की ख़ातिर कुर्बान होते देखा है॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
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