Tuesday, 17 February 2015

तनिक ठहर लो, ज़रा देख़ लो…

क्या दौड़ भाग है लगा रखी?
क्यों इधर-उधर तुम भटक रहे?
क्यों तथाकथित को सुन-सुनकर,
तुम कर्म भूमि में अटक रहे?
ज़रा एक बार ख़ुद को देखो,
कितने अवगुण, कितने गुण हैं।
क्यों दूजों की पोथी पढ-पढ,
मन के मन में खटक रहे?

अरे! तनिक ठहर लो ज़रा देख़ लो…











इतनी ज़ल्दी काहे की है?
धीरे कर पर अच्छा कर।
स्वयं भाग्य को सुघड़ बना कर,
नकल नहीं कुछ सच्चा कर॥
आत्मसमर्पण कर दो ख़ुद को,
एक बार अन्तर मे देख।
भीतर अपने पाओगे तुम,
गुणों सुशोभित स्वर्णिम लेख़॥


ख़ुद को नहीं तो नहीं सही,
बस क्षणिक नेत्र यह धरा देख़ लो॥


तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!
तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Wednesday, 11 February 2015

अवशेष…

ख़ोज में हूँ चल पड़ा,
मैं अपने ही अवशेष की।
न प्रमुख, न अल्पसाँख्यिक,
न किसी विशेष की॥

अपना ही प्रतिबिंब खोजूँ,
जो मैं अब हूँ खो चुका।
छोड़ इसको क्यों न सोचूँ,
होना था जो हो चुका॥


राहें कठिन हैं, या मैं निर्बल,
या सहारा चाहिये।
कालिमा मय है निशा,
कोई सितारा चाहिये॥










कहकहों वाली हँसी,
मुस्कान बन कर रह गयी।
ज़रा चर्चित थी जो वह,
पहचान थक कर ढह गयी॥

अब पुनः वही ‘भोर’ वही
साँझ कहाँ से पाऊँ?
या ऐसा जीवन, जीवन भर
यापित करता जाऊँ??



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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