क्या दौड़ भाग है लगा रखी?
क्यों इधर-उधर तुम भटक रहे?
क्यों तथाकथित को सुन-सुनकर,
तुम कर्म भूमि में अटक रहे?
ज़रा एक बार ख़ुद को देखो,
कितने अवगुण, कितने गुण हैं।
क्यों दूजों की पोथी पढ-पढ,
मन के मन में खटक रहे?
अरे! तनिक ठहर लो ज़रा देख़ लो…
इतनी ज़ल्दी काहे की है?
धीरे कर पर अच्छा कर।
स्वयं भाग्य को सुघड़ बना कर,
नकल नहीं कुछ सच्चा कर॥
आत्मसमर्पण कर दो ख़ुद को,
एक बार अन्तर मे देख।
भीतर अपने पाओगे तुम,
गुणों सुशोभित स्वर्णिम लेख़॥
ख़ुद को नहीं तो नहीं सही,
बस क्षणिक नेत्र यह धरा देख़ लो॥
तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!
तनिक ठहर लो ज़रा देख लो!!
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’
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