Sunday, 24 December 2017

Moon - Ⅰ

You know! We’re not that different;
You and me..
Running alone through the night,
Getting stronger with every fight.

You keep revolving around your love,
Just to see her face.
And even if you are tired,
You can’t lower the pace.
Plus, with every passing night,
You try to shine a little more bright.


You see! We’re not that different;
You and me..
Running alone through the night,
Getting stronger with every fight.

I can sense the courage you gather up, day-by-day;
Till the day when she sees the complete of you.
And when you realize, there’s a distance;
One can only imagine what you’ve been through.
One day, each month, you cry your heart out;
Hiding from the world’s sight.


I guess, you understand! We’re not that different;
You and me..
Running alone through the night,
Getting stronger with every fight.

You try to come closer,
She moves further away.
I don’t think she knows,
What you’ve been trying to say.
I do understand your situation,
But others don’t see your plight.


I can now say! We’re not that different;
You and me..
Running alone through the night,
Getting stronger with every fight.


 ©Prabhat Singh Rana ‘ bhor’


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Tuesday, 14 November 2017

किरण

करुण वेदना रहती मन में,
हर पल आता उनका ध्यान।
नैन नहीं हैं जिनके; औ जो
देख न पाएँ धरती-धाम॥

क्या रहता होगा मन में उनके,
तम से भी हटकर कोई रंग?
क्या बदल लिया होगा सबने,
अपने रहने-जीने का ढंग?


क्या उनको मालूम होगा कि,
वसुधा कितनी प्यारी है?
क्या उनको भी पता है ये कि,
दुनिया कितनी सारी है?

धिक् है हम सब अँखियारों को,
नयन सहित भी नेत्रहीन हैं।
जाने क्यों न दिखते वो जो,
होते हुए भी ख़ुद में लीन हैं॥


वो सब जो ये भी न जानें,
असल में वो दिखते कैसे हैं।
वो जो ये तक जानें न, कि
दिन औ रात अलग कैसे हैं॥

क्या उनको अधिकार नहीं कि,
देखें धरती की सुंदरता?
या उनमें कुछ अलग है, जिससे
हम में नहीं है समरसता?


काश! कि उनको आँखें होतीं,
देखते वो धरती का रूप।
अन्तर भी वो पा सकते, कि
छाँव है क्या और क्या है धूप॥

उनको भी ये ज्ञात होता, कि
रंग किन्हें हम कहते हैं।
अजब रमणता है इस जग में,
यहीं जहाँ हम रहते हैं॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


इस ब्लॉग में समान शीर्षक से एक कविता पहले भी प्रकाशित हुई है, जो ब्लॉग की पहली कविता भी है, उसे पढ़ने हेतु यहाँ जाएँ - किरण 
धन्यवाद!


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Tuesday, 24 October 2017

मेरे गूगल जी महाराज!


मेरी नाव फ़ँसी मझधार,
कुछ तो राह दिखाओ आज।
कुछ तो राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥

तुम्हरे बिन कोई रह ना पावे,
अन्न-पानी सब रास न आवे।
जब-जब तुम्हरे दर्शन ना हों,
अटक पड़ें सब काज॥

ओ! मोहे राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥


तुमसे ही सब काज सफ़ल हों,
संकट तुम हर लेते।
जब पूछो, जैसे पूछो,
हर प्रश्न को हल कर देते॥

तुम्हरे ही कारण सब दुनिया,
मुट्ठी में हो पायी।
तुम्हरे बिन क्या होगा जग का,
मेरी समझ न आई॥

तुमसे ही जग के सुर बनते,
तुमसे निकलें साज।
ओ! मोहे राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥


युवा पीढ़ी है तुम्हरे बस में,
ऐसा तुम्हरा जादू।
इतना तुम्हरा है उपकार,
बदले में तुम्हें क्या दूँ॥

सभी युवाओं के सर के,
तुम हो सतरंगी ताज।
ओ! मोहे राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥


परम ख़्याति पा कर दुनिया में,
वर्चस्वी बन बैठे।
बच्चे, बूढ़े औ मध्यम वय,
तुम्हरी ही सुध लेते॥

आप चपल ज्ञानी-विद्वानी,
आप ही जग कल्याणी।
आप ही की धुन में खोया रहता,
सदैव मनु प्राणी॥

अथक-सी इस दुनिया में केवल,
आप ही का है राज।
ओ! मोहे राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥



तुमसे ही ये ‘भोर’ शुरु हो,
संध्या इसकी तुमसे।
ऐसा जग में है ना कोई,
तुलित हो तुम्हरे गुन से॥

तुम चिट्ठी-पत्री का भी हो,
इक विश्वासी साधन।
तुम्हरे ही संसार तले है,
हर इक प्राणी का मन॥

अरे! ‘भोर’ की आशा लिये खड़ा मैं,
सफ़ल करो मेरे काज।
मोहे राह दिखाओ आज,
मेरे गूगल जी महाराज॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


Friday, 6 October 2017

जीवन की इस भाग दौड़ में…

जीवन की इस भाग दौड़ में,
दृश्य ज़रा कम लगते हैं।
कुछ लम्हे शुष्क हैं यादों में,
कुछ स्वप्न मधुर नम लगते हैं।।

इधर दौड़ना, उधर भागना,
जीवन यही सिखाता है।
नयी चुनौतियाँ सम्मुख रख कर,
सपने नये दिखाता है।।


भूतकाल तो स्मरण में आ कर,
कुंठित मन कर जाता है।
पर इक अच्छे कल की आस में,
जीवन चलता जाता है॥

छाया-सी इस दुनिया में,
सारे ही भ्रम लगते हैं।
ग़म मिलते सबको खण्डों में हैं,
सबको पर, क्रम लगते हैं॥

गति पकड़ते जीवन में,
रिश्ते तो पीछे छूट गये।
कभी खुद को लेकर देखे थे,
वो स्वप्न मधुर सब टूट गये॥


आने वाले कल की हर पल,
फ़िक्र हृदय में रहती है।
मैं रहूँ सदा ख़ामोश बस मेरी,
परछाईं कुछ कहती है॥

वह कहती है कि रिश्ते अब तो,
कच्चे रेशम लगते हैं।
‘भोर’ में भी वह बात ना रही,
दिन भी बेदम लगते हैं॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Tuesday, 28 March 2017

अच्छा है…! (अतिरिक्त)

Guys this poem is the part of the previous one and makes great sense with that. Try to read the poem (titled- अच्छा है... Click to read) and try to connect both.

कभी-कभी जब दुनिया भर के,
नियम अनोखे हो जाते हैं।
तब उन सब रस्मों-नियमों को,
तोड़ भुलाना अच्छा है॥

जब अपना अतीत याद कर,
नज़रें हल्की झुक जाती हैं।
तब-तब अपने वर्तमान से,
नज़र मिलाना अच्छा है॥


 ख़्वाबों की दुनिया में बस,
अब तेरी बातें होती हैं।
शायद तुझसे ख़्वाबों में ही,
सब कह जाना अच्छा है॥

तू जहाँ-जहाँ भी जाती है,
अपनी ख़ुशबू दे जाती है।
तेरा मुझसे मिलकर, मुझको
भी महकाना अच्छा है॥

यादों से तेरी बचते-छुपते,
मेरे दिन ढलते हैं।
निशा में आ तेरा मुझ पर,
कब्ज़ा कर जाना अच्छा है॥


दुनिया के सम्मुख अपना दु:ख,
कहने से डर लगता है।
ना समझे कोई इस खातिर,
बात बनाना अच्छा है॥

‘भोर’ देख कर बीते दिन की,
बात भुलाना अच्छा है।
कुछ लम्हों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Guys read the poem along with the previous one (titled- अच्छा है... Click to read) and try to connect both.

Monday, 13 February 2017

तू है…

ख़ुदा की हर इबादत में तू है,
हाँ, मेरी आदत में तू है।
चैन में तू, राहत में तू है,
हाँ, मेरी चाहत में तू है॥

काम में, आराम में तू,
मधुर-भीनी शाम में तू।
खुशियों की उम्मीद तुझसे,
कर्म के अंजाम में तू॥


तृप्ति की तलाश में तू,
शान्ति की आश में तू।
‘भोर’ की शुरुआत तुझसे,
प्यार के एहसास में तू॥

हर दिन में तू, हर रात में तू,
अनकही हर बात में तू।
‘भोर’ में किरणों की भाँति,
बूँद-सी बरसात में तू॥


सत्कर्म में, गुनाह में तू,
ख़्वाहिशों की राह में तू।
बिन तेरे चंचल रहे मन,
चैन की पनाह में तू॥

रब की हर इनायत में तू है,
इश्क़ की रिवायत में तू है।
भूल में, आदत में तू है,
हाँ मेरी चाहत में तू है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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Monday, 16 January 2017

तुमसे क्या कहें…

कीमतें किसने लगायीं,
नाम तुमसे क्या कहें।
बिक रहे हैं कौड़ियों के,
दाम तुमसे क्या कहें॥

आज का जो फ़लसफ़ा है,
आज ही तो ख़त्म है।
कल ना जाने क्या रहे,
अंजाम तुमसे क्या कहें॥


आजकल हर कोई अपनी,
धुन में ही मशगूल है।
वक़्त का जो है मुझे,
पैगाम तुमसे क्या कहें॥

पीठ के पीछे तो हर कोई,
अलग ही सोचता है।
चल रहा जो आज,
क़त्ल-ए-आम तुमसे क्या कहें॥

मैं हर घड़ी खोया रहूँ,
जिस नाम में वह दूर है।
चल रहा है किस क़दर,
हर काम तुमसे क्या कहें॥


आज मयखाना भी महफ़िल से,
जुदा-सा लग रहा है।
फ़ीका मुझको लग रहा,
हर जाम तुमसे क्या कहें॥

‘भोर’ को आँखें दिखाता,
ये ज़माना चल रहा है।
हम तो यूँ ही हो रहे,
बदनाम तुमसे क्या कहें॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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