Monday, 7 November 2016

हाँ, इक पागल

चुपके-चुपके सहे अकेले,
मुख से कुछ न कहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥





थोड़े पल, औ ज़रा-सी चिंता,
की ख़्वाहिश वो करता है।
मन ही मन उम्मीद लगाए,
पर कहने से डरता है॥

अपने मन की व्यथा स्वयं के,
मन में दबा के सहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥




तेरे मन का हाल न जाने,
अपने मन का हाल छुपाए।
जो कोई पूछे, आँख झुकाकर
झूठ सभी से कहता जाए॥

सबसे छुप कर नमक बहाता,
वह यादों में बहता है॥
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥





तू धीरे से ख़्वाब में आकर,
सब अपना कर जाती है।
फ़िर सम्मुख, क्यों नज़र चुराकर,
तू इतना डर जाती है॥

कब तक रखे छुपाकर सबसे,
आज ‘भोर’ यह कहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’



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