Wednesday, 19 October 2016

अच्छा है…

कुछ चीजों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है।
बोल के पछताने से ज्यादा,
चुप हो जाना अच्छा है॥

कभी-कभी हालात बदलते,
ख़ुद, ‘मैं’ बदला जाता हूँ।
हाँ शायद, हालात के सम्मुख,
शीश झुकाना अच्छा है॥





तू दूरी चाहा करती थी,
मैं पास आने को डरता था।
अब सारे बन्धन तोड़ के तेरा,
ख़्वाब में आना अच्छा है॥

वर्षा की बूँदे तृण से जुड़कर,
धरा सुशोभित करती हैं।
बस इसी तरह से तेरा-मेरा,
भी जुड़ जाना अच्छा है॥

खुद से बातें करता-करता,
तुझे याद कर लेता हूँ।
हाँ इसीलिए, हर वक़्त ही खुद को,
व्यस्त बताना अच्छा है॥





ये दुनिया बड़ी ही चंचल है,
जख़्मों को उकेरा करती है।
नासूर न बन जाये कोई,
हर घाव छुपाना अच्छा है॥

‘भोर’ की बातें सुन-सुनकर के,
परे हटाना अच्छा है।
कुछ लम्हों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’



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