मेरे दु:ख में आँसू अपने,
ख़ूब बहाती मेरी माँ।
मैं खुश हूँ तो, मुझसे ज्यादा,
खुश हो जाती मेरी
माँ॥
सच्चाई का हर पल मुझको,
पाठ पढ़ाती मेरी माँ।
गलती हो तो पास बिठाकर,
है समझाती मेरी माँ॥
मुझे देख कर पल-पल मेरी,
चिंता करती मेरी माँ।
दूर शहर में मुझे भेज कर,
गृह-कर्मों में दक्ष है वह,
औ हरा समय को देती है।
वह अपना सर्वस्व लुटाकर,
वापस कुछ न लेती है॥
हँसती मुझे हँसाने को,
पर चिंता करके रोती है।
हर रात बिस्तर पर जा कर,
कभी बुखार हो मुझको तो,
वह रात-रात भर जगती है।
भूख-प्यास में खाना खाया,
कह कर मुझको ठगती है॥
खुद को परेशानी हो कितनी,
पर चुप रहती मेरी माँ।
पूरे दिन का काम ख़त्म कर,
पर उस माँ का वर्णन पूरा,
कैसे अब यह ‘भोर’ करे।
वश चले धरा पर, चीख़-चीख़ कर,
व्याख़्यान चहुँ ओर करे॥
किस्मत ग़र वह लिखती,
केवल खुशियाँ लिखती मेरी माँ।
दु:ख बचता तो स्वयं छोड़ कर,
देती किसको मेरी माँ॥
दुनिया भर भगवान को माने,
मैं जानूँ बस मेरी माँ।
पूजूँ उस भगवान से पहले,
पूजे जिसको मेरी माँ॥
©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’