मानव के अन्याय से पीड़ित,
बेबस औ लाचार पड़ी है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥
इक – इक क़तरा उसका,
सबसे चीख – चीख कर बोल रहा।
क्यों तू मुझको नहीं संजोता,
क्यों तेरा मन डोल रहा॥
यह तेरा आलय है,
तेरा ही अपना संसार है।
मत उजाड़ कर इसको,
इसको तेरा घर परिवार है॥
तेरे सारे कर्म मूक बन,
मन ही मन वह आँक रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥
वह अपना सर्वस्व लुटाकर,
तुझको जीवन देती है।
बदले में बस देख-रेख के,
इतर भी क्या कुछ लेती है?
पर तू इक मानव है,
तेरे कर्म सभी मानव से।
क्यों तू न समझे वसुधा के,
कृंदन वो नीरव से॥
इतना स्वार्थ देख तेरा वह,
थर-थर भय से काँप रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है।
किरण 'भोर' की लिये हृदय
में,
वह तन अपना ढाँप रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥
©प्रभात सिंह राणा 'भोर'
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