Sunday, 18 January 2015

दूर खड़ी वह झाँक रही है!!! (प्रकृति)



मानव के अन्याय से पीड़ित,
बेबस औ लाचार पड़ी है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥

इक – इक क़तरा उसका,
सबसे चीख – चीख कर बोल रहा।
क्यों तू मुझको नहीं संजोता,
क्यों तेरा मन डोल रहा॥


यह तेरा आलय है,
तेरा ही अपना संसार है।
मत उजाड़ कर इसको,
इसको तेरा घर परिवार है॥

तेरे सारे कर्म मूक बन,
मन ही मन वह आँक रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥

वह अपना सर्वस्व लुटाकर,
तुझको जीवन देती है।
बदले में बस देख-रेख के,
इतर भी क्या कुछ लेती है?














पर तू इक मानव है,
तेरे कर्म सभी मानव से।
क्यों तू न समझे वसुधा के,
कृंदन वो नीरव से॥

इतना स्वार्थ देख तेरा वह,
थर-थर भय से काँप रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है।



किरण 'भोर' की लिये हृदय में,
वह तन अपना ढाँप रही है।
अहम् ज़रा तू कम कर अपना,
दूर खड़ी वह झाँक रही है॥


©प्रभात सिंह राणा 'भोर'

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Saturday, 10 January 2015

किरण




प्रातः की वो काल विनाशी,
किरण चमत्कारी–सी।
सारे जग को दिशा दिखाती,
जगत करुण–हारी-सी॥

कल्प विकल्प बहुत मस्तक में,
कभी जरा मिलना हो।
अनुनय करूँ के हर ले सारी,
धुन्ध अन्धकारी-सी॥














धुन्ध जो जग में फ़ैल रही है,
ईष, द्वेष, कुण्ठा की।
सारे जग का नाश करे जो,
मानव संहारी-सी॥

‘भोर’ समय ओ किरण अजनबी,
छा जाओ वसुधा पर।
धुन्ध हटा, जीवंत बना दो,
धरती यह प्यारी-सी॥





किरण ‘भोर’ की अमृत भाँति,
है प्रेरित-कर्ता – सी।
मन के विकार भी दूर करे है,
पावन शुभकारी – सी॥

किरण वही, जो दुनिया भर में,
एक समान बिछी है।
हर मानव पर कंबल भाँति,
चंचल मतवारी – सी॥


© प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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