Tuesday 14 November 2017

किरण

करुण वेदना रहती मन में,
हर पल आता उनका ध्यान।
नैन नहीं हैं जिनके; औ जो
देख न पाएँ धरती-धाम॥

क्या रहता होगा मन में उनके,
तम से भी हटकर कोई रंग?
क्या बदल लिया होगा सबने,
अपने रहने-जीने का ढंग?


क्या उनको मालूम होगा कि,
वसुधा कितनी प्यारी है?
क्या उनको भी पता है ये कि,
दुनिया कितनी सारी है?

धिक् है हम सब अँखियारों को,
नयन सहित भी नेत्रहीन हैं।
जाने क्यों न दिखते वो जो,
होते हुए भी ख़ुद में लीन हैं॥


वो सब जो ये भी न जानें,
असल में वो दिखते कैसे हैं।
वो जो ये तक जानें न, कि
दिन औ रात अलग कैसे हैं॥

क्या उनको अधिकार नहीं कि,
देखें धरती की सुंदरता?
या उनमें कुछ अलग है, जिससे
हम में नहीं है समरसता?


काश! कि उनको आँखें होतीं,
देखते वो धरती का रूप।
अन्तर भी वो पा सकते, कि
छाँव है क्या और क्या है धूप॥

उनको भी ये ज्ञात होता, कि
रंग किन्हें हम कहते हैं।
अजब रमणता है इस जग में,
यहीं जहाँ हम रहते हैं॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


इस ब्लॉग में समान शीर्षक से एक कविता पहले भी प्रकाशित हुई है, जो ब्लॉग की पहली कविता भी है, उसे पढ़ने हेतु यहाँ जाएँ - किरण 
धन्यवाद!


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