Tuesday 28 March 2017

अच्छा है…! (अतिरिक्त)

Guys this poem is the part of the previous one and makes great sense with that. Try to read the poem (titled- अच्छा है... Click to read) and try to connect both.

कभी-कभी जब दुनिया भर के,
नियम अनोखे हो जाते हैं।
तब उन सब रस्मों-नियमों को,
तोड़ भुलाना अच्छा है॥

जब अपना अतीत याद कर,
नज़रें हल्की झुक जाती हैं।
तब-तब अपने वर्तमान से,
नज़र मिलाना अच्छा है॥


 ख़्वाबों की दुनिया में बस,
अब तेरी बातें होती हैं।
शायद तुझसे ख़्वाबों में ही,
सब कह जाना अच्छा है॥

तू जहाँ-जहाँ भी जाती है,
अपनी ख़ुशबू दे जाती है।
तेरा मुझसे मिलकर, मुझको
भी महकाना अच्छा है॥

यादों से तेरी बचते-छुपते,
मेरे दिन ढलते हैं।
निशा में आ तेरा मुझ पर,
कब्ज़ा कर जाना अच्छा है॥


दुनिया के सम्मुख अपना दु:ख,
कहने से डर लगता है।
ना समझे कोई इस खातिर,
बात बनाना अच्छा है॥

‘भोर’ देख कर बीते दिन की,
बात भुलाना अच्छा है।
कुछ लम्हों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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