Sunday 19 June 2016

पापा

हँसता मुझको देख के मन में,
खुश हो जाते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

उँगली का सहारा लेकर मैंने,
पहला कदम बढ़ाया था।
और पापा को बने सहारा,
अपने पीछे पाया था॥

अपने कंधों पर मुझे बिठाकर,
इधर-उधर ले जाते थे।
जिस वस्तु की पड़े ज़रूरत,
बिना कहे ले आते थे॥



गलती हो जाने पर हल्की,
डाँट लगाते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

हँसते-हँसते दूर भेज कर,
भीतर मन में डरते हैं।
मेरी तुलना मूल्यवान,
अनमोल रत्न से करते हैं॥

ज्वर आने पर दौड़े- दौड़े,
देखरेख भी करते हैं।
मैं जागूँ तो मेरे पीछे,
रात-रात भर जगते हैं॥



बीमारी में भी खुद को हर-पल,
ठीक बताते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

हर बात को समझा करते हैं,
हर ज़िद भी पूरी करते हैं।
कमी न रहे किसी चीज की,
सदा ये चिंता करते हैं॥

घर भर की परेशानी में भी,
ठोस बने मुस्काते हैं।
कभी-कभी पर ‘भोर’ की ख़ातिर,
नेत्र सजल हो जाते हैं॥



मुझ पर हर पल वैभव अपना,
खूब लुटाते हैं पापा।
मुझको अपनी दुनिया, अपना,
शहर बताते हैं पापा॥

हाँ! बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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