Sunday 28 February 2016

हाँ छुपाना सीखा है…

मुझे खुद से वाक़िफ़ कराने वालों,
ज़रा ठहरो कि नमक कुछ कम है।
मुझे खुद मे ही रहने का हुनर फ़िर से न दो,
बड़ी मुश्किल से मैंने ज़रा मुस्कुराना सीखा है॥

नफ़रत है मुझे अपने उस पहलु से,
जो दिल भी लगाता था,कह भी न पाता था।
कह लेने दो मुझको आज, जो कुछ भी है,
बड़े दर्द में मैंने यूँ दिल लगाना सीखा है॥

जख़्मों को हवा देकर उजागर जो किया है,
मयस्सर करायी मुझको मेरी सच्चाई।
बस करो अब, कि हर कोई जान लेगा,
कैसे किश्तों में मैने जो ग़म छुपाना सीखा है॥


आज मेरे आँसुओं की वज़ह मत पूछना,
ये भारी हैं, बस यूँ ही निकल पड़ते हैं।
भीतर से जानने की कोशिश न करना,
हाँ, आँसुओं को बूँद पानी की बताना सीखा है॥

रुक जाऊँ कहीं पर, तो न समझना थक चुका,
साँस लूँ मै दो घड़ी, तो न समझना निर्बल हूँ।
साथ-साथ चलने को भी मत कहा करो कभी,
हाँ, ख़ुद से ही राहों पर लड़खड़ाना सीखा है॥

‘भोर’ की आशा दिखाकर, झूठ को सच मत कहो,
मत कहो कि बोल दो, या मत कहो खुद में रहो।
आसमाँ में रात मैंने अन्धेरा ही देखा है,
अपने ग़म गुपचुप स्वयं से बड़बड़ाना सीखा है॥


हाँ, ढेर मुश्किल से ज़रा-सा मुस्कुराना सीखा है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


Monday 22 February 2016

नक़ाब

छोटी-सी इस दुनिया में,
दाग-ए-ग़म कुछ गहरे हैं।
मत यकीन करना ऐ दिल,
यहाँ सभी नक़ाबी चेहरे हैं॥

लाख़ लोग दस लाख़ हैं चेहरे,
कौन सत्य है कौन प्रपंच।
असमंजस में है यह दिल,
यहाँ सभी नक़ाबी चेहरे हैं॥





हर मानव इस दुनिया में,
कई चेहरे लेकर चलता है।
पर असली जो चेहरा है,
वह रोता है, वह हँसता है॥

मानव ऊपर से चेहरे लेकर,
वह चेहरा ढँकता है,
हर बात, हर पल के लिए,
वह अलग से चेहरा रखता है॥




छल प्रधान यह दुनिया है,
प्रत्येक कर्म दिखावा है।
भीतर के हैं भेद अलग,
चेहरा तो मात्र छलावा है॥

‘भोर’ समय से देर निशा तक,
स्वार्थ के साजिश सेहरे हैं।
मत यकीन करना ऐ दिल,
यहाँ सभी नक़ाबी चेहरे हैं॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Sunday 14 February 2016

शायद…

शायद तुझसे मिल जाउँगा,
भूले-बिसरे गीतों-सा।
मिलकर तुझसे खूब लड़ूँगा,
रुठे-बिछड़े मीतों-सा॥               

पुनः मिलन की चाह तो है,
उम्मीद न है इन आँखों में।
पर चाहूँगा तेरे मन में,
बसा रहूँ संगीतों-सा॥





बार-बार तुझसे लड़ना हो,
जीत कभी न मेरी हो।
प्रेम-युक्त हर हार में पर,
उद्घोष सदा हो जीतों-सा॥

जीवन में तम घोर कभी हो,
हर कोई इक दीपक चाहे।
दुआ यही तेरे जीवन में,
बचा रहूँ उन दीपों-सा॥





कोशिश करके तोड़ दे रस्में,
कदम ज़रा इस ओर बढ़ा।
वादा है, मैं यहीं रहूँगा,
नव-निर्मित कुछ रीतों-सा॥

आज ‘भोर’ है तेरे सम्मुख़,
कल क्या होना किसे पता।
शायद धुँधला पड़ जाऊँगा,
भूले-बिसरे गीतों-सा॥





शायद पन्नों में रह जाउँ,
मैं बिगड़े संगीतों-सा…।




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’