Saturday 24 December 2016

आहिस्ता

तेरी ख़ातिर आहिस्ता,
शायद क़ामिल हो जाऊँगा।
या शायद बिखरा-बिखरा,
सब में शामिल हो जाऊँगा॥

शमा पिघलती जाती है,
जब वो यादों में आती है।
शायद सम्मुख आएगी,
जब मैं आमिल हो जाऊँगा॥



 पेशानी पर शिकन बढ़ाती,
जब वो बातें करती है।
नहीं पता कब होश में आऊँ,
कब क़ाहिल हो जाऊँगा॥

उसकी नज़रें दर-किनार,
मेरी नज़रों को कर देती हैं।
सारी रंजिश दूर हटाकर,
खुद साहिल हो जाऊँगा॥



वह तितर-बितर मेरे मन की,
हर ख़्वाहिश को कर देती है।
कदम बढ़ा उसकी राहों में,
मैं राहिल हो जाऊँगा॥

हर एक गुज़ारिश उसकी,
अपनी किस्मत में लिख देता हूँ।
तक़दीर मेरी भी गूँज उठेगी,
जब क़ाबिल हो जाऊँगा॥


 शब में आ कर ख़्वाबों पर,
अपना कब्ज़ा कर लेती है।
‘भोर’ तलक मैं आहिस्ता।
शायद ज़ामिल हो जाऊँगा॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


Words-
  क़ामिल- Complete
  शमा    - Candle
  आमिल- Effective
  पेशानी- Forehead
  क़ाहिल- Lazy
  साहिल- Shore/River bank
  राहिल- Traveler
  शब    - Night
  ज़ामिल- Happy


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Monday 7 November 2016

हाँ, इक पागल

चुपके-चुपके सहे अकेले,
मुख से कुछ न कहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥





थोड़े पल, औ ज़रा-सी चिंता,
की ख़्वाहिश वो करता है।
मन ही मन उम्मीद लगाए,
पर कहने से डरता है॥

अपने मन की व्यथा स्वयं के,
मन में दबा के सहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥




तेरे मन का हाल न जाने,
अपने मन का हाल छुपाए।
जो कोई पूछे, आँख झुकाकर
झूठ सभी से कहता जाए॥

सबसे छुप कर नमक बहाता,
वह यादों में बहता है॥
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥





तू धीरे से ख़्वाब में आकर,
सब अपना कर जाती है।
फ़िर सम्मुख, क्यों नज़र चुराकर,
तू इतना डर जाती है॥

कब तक रखे छुपाकर सबसे,
आज ‘भोर’ यह कहता है।
हाँ, इक पागल घड़ियाँ तकता,
इंतज़ार में रहता है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’



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Wednesday 19 October 2016

अच्छा है…

कुछ चीजों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है।
बोल के पछताने से ज्यादा,
चुप हो जाना अच्छा है॥

कभी-कभी हालात बदलते,
ख़ुद, ‘मैं’ बदला जाता हूँ।
हाँ शायद, हालात के सम्मुख,
शीश झुकाना अच्छा है॥





तू दूरी चाहा करती थी,
मैं पास आने को डरता था।
अब सारे बन्धन तोड़ के तेरा,
ख़्वाब में आना अच्छा है॥

वर्षा की बूँदे तृण से जुड़कर,
धरा सुशोभित करती हैं।
बस इसी तरह से तेरा-मेरा,
भी जुड़ जाना अच्छा है॥

खुद से बातें करता-करता,
तुझे याद कर लेता हूँ।
हाँ इसीलिए, हर वक़्त ही खुद को,
व्यस्त बताना अच्छा है॥





ये दुनिया बड़ी ही चंचल है,
जख़्मों को उकेरा करती है।
नासूर न बन जाये कोई,
हर घाव छुपाना अच्छा है॥

‘भोर’ की बातें सुन-सुनकर के,
परे हटाना अच्छा है।
कुछ लम्हों को देख के यूँ ही,
नज़र चुराना अच्छा है॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’



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Monday 12 September 2016

मेरे गुरु, मेरे लिए

सीधे लक्ष्य पर लग जाएँ,
हमारे ये बाण।
करना मार्गदर्शन हमारा,जब तक है,
शरीर में प्राण॥

शिक्षा देकर जीवन में हमारे,
आपने अंधकार मिटाया।
हमारे भीतर आपने,
ज्ञान का दीप जलाया॥

हमारा जीवन आपने,
पल में स्वर्ग बनाया।
असफ़लता से कभी डरो नहीं,
हमें आपने यही सिखाया॥




 अँधेरे में थे हम, आपने दिखाया
रोशनी से भरा तारा।
डर का वृक्ष जड़ ले चुका था,
आपने उसे जड़ से उखाड़ा॥

जो विद्या का धन आपने हमें दिया है,
उसका कर्ज़ कैसे उतारूँ।
शीश तुम्हें झुकाता हूँ,
स्वीकार करो नमन हमारा॥


अर्जुन के लिए जो द्रोणाचार्य है,
जो मीरा का लगता रविदास है।
आपका स्थान मेरे लिये इतना खास है,
जितना शरीर में आत्मा का वास है॥

बिन आपके जीवन-सुख आया न रास है,
घनघोर अँधेरे में भी जैसे उजाले की तलाश है।
हमारे जीवन में आपका स्थान इतना खास है,
जैसे कस्तूरी के लिए हिरण की तलाश है॥

   



©शुभांकर ‘शुभ’ 
  
  

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 -प्रभात सिंह राणा 'भोर'

Sunday 28 August 2016

जैसे कवि रचना करता है!

कितनी पास है तू,
पर दूर भी कितनी है,
तारों के बीच में दूरी जितनी है,
एक दिन तो शायद, ये दूरी मिटनी है॥

तेरा अख़्स है मुझमें यों जैसे,
दरिया में चाँद की छाया है,
सावन हँस के लहराया है,
धूप में गहरा साया है॥




तू नज़र चुरा के बैठी जैसे,
सूरज घन में छिप जाता है,
मोती सीप सुहाता है,
हाँ! अपना कुछ नाता है॥

तेरी मुझे ज़रूरत जैसे,
सूखे में पानी का शोर,
कवि को बस कविता हर ओर,
निशा अंत में जैसे भोर॥




मैं तुझसे आकर्षित जैसे,
कीट-पतंगे हों दीपक से,
भँवरे होते मधु के मद से,
कलम कभी जैसे कागद से॥

मुँह को फ़ेरती है जैसे,
रोशनी छिपती घटा में,
रंग छिपता आसमाँ में,
राग छिपता है हवा में॥




‘भोर’ स्वागत यों करे ज्यों,
आगन्तुक का होता है,
भूख में बच्चा रोता है,
अपनी धुन कोई खोता है॥

मैं तेरी याद में रहता जैसे,
शिल्पकार कुछ गढ़ता है,
कोई भटका सागर तरता है,
जैसे कवि रचना करता है॥



©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Monday 15 August 2016

एक संकल्प

चलो एक संकल्प लें,
भारत को नयी पहचान दें।
हाथ-हाथ सबके साथ,
सबको एक-सा सम्मान दें॥



संकल्प भारत को आगे बढ़ाने का,
साथ ही दुनिया में छा जाने का।
चलो सदा यूँ ही साथ निभायें,
भारत का नया रूप दिखायें॥

भेदभाव सब ख़त्म करें,
दिल में नयी उमंग भरें।
जातिवाद हो जड़ से ख़त्म,
जो भारत को दे नया जन्म॥


नारी को देकर पूरा मान,
ऊँचा करें अपना अभिमान।
करके सबके हित में काम,
चलो बना दें 'मेरा भारत महान'




©शुभांकर ‘शुभ’



Posted by- प्रभात सिंह राणा 'भोर'

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Saturday 6 August 2016

उत्तराखण्ड आपदा

बिन मौसम ये मानसून क्यों आया ?
जो संग अपने इतनी तबाही है लाया।
इस बार पहाड़ इतना क्यों रोया,
कि उसने सबका सुख-चैन है खोया॥

क्यों नदियों ने इतना उफ़ान लिया ?
कि जो आया सामने उसका विनाश किया।
क्यों नदियों ने निगले गाँव के गाँव,
तो भू-स्खलन ने क्यों तोड़े उत्तराखण्ड के पाँव॥




दैवीय आपदा से खुद देव भी न बच पाए,
केदारनाथ, बद्रीनाथ धाम भी यहाँ पानी में समाए।
शवों की क्यों नहीं हो पायी ठीक-ठीक गिनती,
क्यों प्रशासन नहीं सुन रहा पीड़ितों की विनती॥

सब पीड़ितों की आँख में देखा जा,
सकता है ये खौफ़नाक मंज़र्।
ये आपदा हमने बुलाई, हमने ही घोंपा है
पहाड़ों की पीठ में खंज़र॥




हर तरफ़ मची ये करुण चीख-पुकार,
हवाई दौरा कर क्या मजाक उड़ा रही है सरकार॥

क्यों लग रहे हैं प्रबंधन के गलत अनुमान,
दूर तलक फ़ैले हैं इस तबाही के निशान।
क्या हैं, हमारे पास इन सवालों के जवाब ?
पहाड़ों को बना के भिखारी, प्रबंधन क्यों बना बैठा है नवाब ?



©शुभांकर ‘शुभ’


उपरोक्त कविता मेरे एक अज़ीज़ मित्र के द्वारा लिखी गयी है। आपकी कविता सभी के सम्मुख रखते हुए अत्यंत खुशी महसूस कर रहा हूँ। आपके व्यक्तित्व को मैं ज्यादा नहीं जानता परंतु इतना तो आपकी कविता लेखन से स्पष्ट है कि आप चरित्र के अत्यंत सरल हैं। आप मेरे उन मित्रों की श्रेणी में शामिल हैं जिनसे मैं कभी मिला नहीं परंतु मिलने को आतुर हूँ।
“उपरोक्त कविता में लेखक के स्वयं के विचार हैं।“
धन्यवाद!


-प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Monday 18 July 2016

पथ-प्रदर्शक

स्याह मार्ग में दिशा दिखाते,
राह बताते हैं, पथ-प्रदर्शक।
अन्तिम पग तक साथ निभाते,
कहीं न जाते हैं, पथ-प्रदर्शक॥

नयी राह में, नये रूप में,
कार्य तो वही करते हैं।
दिशा दिखाकर सबको, शायद
खुद खोने से डरते हैं॥



भ्रमित पथिक को अँधियारे में,
आशा भी तो देते हैं।
जैसे कहते चले-चलो तुम,
साथ में हम हो लेते हैं॥

नीरव तम में राहगीर के,
साथ-साथ चल पड़ते हैं।
गिरे हुए को आशा देकर,
पुनः उठाते हैं, पथ-प्रदर्शक॥


घोर अँधेरे, खड़े अकेले,
राह प्रकाशित करते हैं।
राही जाए जहाँ-जहाँ,
हर जगह उपस्थित रहते हैं॥

‘भोर’ काल से दिन संध्या तक,
एक जगह जड़ रहते हैं।
अँधियारे में बोलें, उजियारे में
कुछ न कहते हैं॥

हर मानव को भेद बिना,
सीने से लगाते हैं, पथ-प्रदर्शक।
अन्तिम पग तक साथ निभाते,
कहीं न जाते हैं, पथ-प्रदर्शक॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’



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Sunday 19 June 2016

पापा

हँसता मुझको देख के मन में,
खुश हो जाते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

उँगली का सहारा लेकर मैंने,
पहला कदम बढ़ाया था।
और पापा को बने सहारा,
अपने पीछे पाया था॥

अपने कंधों पर मुझे बिठाकर,
इधर-उधर ले जाते थे।
जिस वस्तु की पड़े ज़रूरत,
बिना कहे ले आते थे॥



गलती हो जाने पर हल्की,
डाँट लगाते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

हँसते-हँसते दूर भेज कर,
भीतर मन में डरते हैं।
मेरी तुलना मूल्यवान,
अनमोल रत्न से करते हैं॥

ज्वर आने पर दौड़े- दौड़े,
देखरेख भी करते हैं।
मैं जागूँ तो मेरे पीछे,
रात-रात भर जगते हैं॥



बीमारी में भी खुद को हर-पल,
ठीक बताते हैं पापा।
बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥

हर बात को समझा करते हैं,
हर ज़िद भी पूरी करते हैं।
कमी न रहे किसी चीज की,
सदा ये चिंता करते हैं॥

घर भर की परेशानी में भी,
ठोस बने मुस्काते हैं।
कभी-कभी पर ‘भोर’ की ख़ातिर,
नेत्र सजल हो जाते हैं॥



मुझ पर हर पल वैभव अपना,
खूब लुटाते हैं पापा।
मुझको अपनी दुनिया, अपना,
शहर बताते हैं पापा॥

हाँ! बाहर से हो ठोस, ह्रदय का,
भेद छुपाते हैं पापा॥





©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’


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Thursday 9 June 2016

बिन मौसम बरसात!

बिन मौसम बरसात आज तो,
कई पाप करवाएगी।      
पुनः आज उसकी यादों में,
सराबोर कर जाएगी॥

मैं देख घटाएँ काली-काली,
उसका चेहरा मँढ़ता हूँ।
उसकी बातें पुनः याद कर,
स्वयं के मन से लड़ता हूँ॥




बिजली की लकीरें मेघों में,
जुल्फ़ों को उकेरा करती हैं।
उन जुल्फ़ों की सुन्दरता से,
रूप-परी भी डरती है॥

गरज़ घनों की रह-रह कर के,
मन विचलित कर जाती है।
धरा से मिलती हर इक बूँद भी,
उर में रोष भर जाती है॥




हवा ये ठंडी मुझको छूकर,
स्पर्श उसका दे जाती है।
पत्तों पर वर्षा की ध्वनि भी,
दिल मेरा ले जाती है॥

‘भोर’ पयोधर झर-झर बरसें,
मन का शोर दबाने को।
पर उसकी यादें रह-रह कर,
आतीं मुझे सताने को॥




©प्रभात सिंह राणा ‘भोर’

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